वापसी में मैंने कुछ भी नहीं छोड़ा
न रास्ते
न पेड़
न उनकी छायाएं
न मेरे मन में उनकी गंध
न भीगी हुई हरी धूपीली दोपहर के अधूरे अवसान का अकस्मात्
मैंने केवल जगह छोड़ी
केवल एक उदास पानी की नदी पर बना पुल छोड़ा
लौटते हुए
पानी छूट गया हो तो छूट गया हो
उदासी नही
काल की टिक टिक में अचानक उठा उफान नहीं
अपनी बेरुखी में शहर चलता हो तो चलता हो
उसकी चाल का एक स्क्रीन शाट
अब भी मेरे सामानों में सिकुड़ा हुआ पड़ा होगा
एक बेतरतीब में चीज़ों को पड़े रहने दो
तो वो खुद ब खुद नहीं खुलती
–उकता कर
समय देती हैं
समय मांगती हैं
तैयार करती हैं अगले सफ़र के लिए
एक तरतीब
और रख देती हैं जेब में
जैसे कोई पुरजा लिखा हुआ
हिदायतशुदा
कि आदमी अकेले न लौटे
पानी छूट गया हो तो छूट गया हो
उदासी नही…. क्या उम्दा अहसास है
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